अनुबंध का अर्थ परिभाषा वैध अनुबंध के लक्षण
अनुबंध का अर्थ : वैध अनुबंध का अर्थ वैध अनुबंध से आशय है कि जिनके क्रियान्वयन के लिए कानून कि सहायता ली जा सकती हो तथा अनुबंध के पक्षकार अपने-अपने अधिकारियों एवं दायित्वों के प्रति वैधानिक रूप से बाध्य हों। सभी ठहराव अनुबंध नहीं होते है केवल वही ठहराव अनुबंध होते है जिनके पक्षकारों के उद्देश्य वैधानिक रूप से उसे पूरा करना होता है।
अनुबंध का अर्थ (anubandh kya hai)
अनुबंध शब्द का सामान्य अर्थ है, दो या दो से अधिक व्यक्तियों का किसी ठहराव के लिये साथ मिलना। अनुबंध अंग्रेजी भाषा के “Contract” का हिन्दी रूपान्तरण है जिसकी उत्पति लेटिन भाषा के “Contractum” शब्द से हुई है जिसका अर्थ होता है साथ मिलाना या खींचना। इस प्रकार से किसी कार्य को करने या नही करने के लिये दो व्यक्तियों का मिलना या इस उद्देश्य से उनको खींचना अनुबंध कहलाता है। अनुबंध का और भी अच्छी तरह से सही अर्थ जानने के लिए विभिन्न विधि-ज्ञाताओं एवं विभिन्न न्यायाधीशों द्वारा समय-समय पर दी वाली परिभाषाओं पर दृष्टि जानना जरूरी है।
अनुबंध की परिभाषा (anubandh ki paribhasha)
लीक के अनुसार,” वैध अनुबंध के स्त्रोत के रूप मे ठहराव किसी एक पक्ष को कुछ कार्य करने हेतु बाधिक करता है, जबकि दूसरा उसे प्रवर्तनीय कराने के लिए वैधानिक अधिकार रखता है।”
सैलमण्ड के अनुसार,” अनुबंध एक ऐसा ठहराव या समझौता है जो पक्षकारों के बीच दायित्व उत्पन्न करता है एवं उनकी व्याख्या करता है।”
सर फ्रेडरिक पोलक के अनुसार,” राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय होने वाला प्रत्येक ठहराव या वचन अनुबंध है।”
सर विलियम एन्सन के अनुसार,” अनुबंध दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच किया गया ऐसा समझौता होता है जिसको विधान के अंतर्गत प्रवर्तित कराया जा सकता एवं जिसके अंतर्गत एक या एक से अधिक पक्षकारों को दूसरे पक्षकार या पक्षकारों के विरूद्ध कुछ अधिकार प्राप्त हो जाते है।”
भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 2 (H) मे अनुबंध को ‘विधि द्वारा प्रवर्तनीय समझौता’ बताया गया है।”
उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर हम निष्कर्ष रूप मे यह कह सकते है कि,” अनुबंध एक ऐसा ठहराव है जिसे विधि या राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय कराया जा सकता है तथा जो एक पक्षकार को दूसरे पक्षकार के विरूद्ध कुछ वैधानिक अधिकार उपलब्ध कराता है।”
अनुबंध की शर्ते
ऊपर दी गई परिभाषाओं के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि अनुबंध मे निम्न तीन बातें या शर्तों का होना जरूरी है–
दो पक्षकार
अनुबंध मे दो पक्षकारों का होना अनिवार्य है, पहला प्रस्ताव को रखने वाला और दूसरा पक्ष वह जो इसे स्वीकार करेंगा। एक पक्षकार कोई भी अनुबंध नही कर सकता इसलिए अनुबंध मे दो पक्षकारों का होना अनिवार्य है।
समझौता या ठहराव
बिना समझौते के अनुबंध नही हो सकता इसलिए दोनों पक्षकारों के बीच कार्य को करने या नही करने के लिए समझौता होना जरूरी है।
वैधानिक दायित्व
अनुबंध के अंतर्गत जो भी समझौता हो वह वैधानिक होना चाहिए। नैतिक, सामाजिक या राजनैतिक समझौते किए गए है तो ऐसे ठहराव अनुबंध नही नही सकते है, क्योंकि पक्षकारों के बीच समझौते से वैधानिक दायित्व का सृजन होना चाहिए जिसे न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय कराया जा सके।
वैध अनुबंध क्या है वैध अनुबंध के आवश्यक लक्षण क्या है?
यदि आवश्यक हो तो भी और यदि पक्षकार पूर्ण सुरक्षा एवं आश्वासन चाहते है तो उन्हें अनुबंध को लिखित, रजिस्टर्ड (यदि वांछित हो तो) एवं साक्ष्यों द्वारा प्रमाणित करवा लेना चाहिए। इस प्रकार से यह निस्कर्षित किया जा सकता है कि अनुबंध को वैध होने के लिए सभी वर्णित बिन्दुओं का समावेश एवं पालन करना चाहिए।
वैद्य अनुबंध के आवश्यक लक्षण
भारतीय अनुबंध निम्न अधिनियम धारा 2(एच) तथा धारा 10 के अनुसार वैध अनुबंध में कुछ लक्षणों का होना आवश्यक है तथा जिनके अभाव में अनुबंध वैध नही माना जायेगा। इस आधार पर किसी अनुबंध में निम्न लक्षणों का होना अनिवार्य है। पर इस प्रकार के ठहराव मित्रता के अथवा अनौपचारिक ठहराव से सर्वदा भिन्न होते है जिनका उद्देश्य कभी भी उनका वैधानिक रूप से क्रियान्वयन कराना नहीं होता है। वैध अनुबंध को हम औपचारिक अनुबंध भी कह सकते है जो भिन्न व्यापारिक पक्षकारों के मध्य होता है। जिनका उद्देश्य व्यापार एवं लाभ कमाना होता है। यह लक्षण ये है-
ठहराव का होना
एक वैध अनुबंध के लिए ठहराव का होना आधारभूत है जिनके बिना अनुबंध हो ही नहीं सकता। ठहराव से तात्पर्य है कि जब किसी विषय पर दो या दो से अधिक पक्षकार सहमत हो गए हो।
ठहराव को भारतीय अनुबंध अधिनियम कि धारा 2(इ) में परिभाषित किया गया कि ‘‘प्रत्येक वचनों का समूह जो एक दूसरे का प्रतिफल हो ठहराव कहलाता है।’’ इसका आशय है कि एक पक्षकार द्वारा दूसरे पक्षकार के समक्ष कोई प्रस्ताव किया जाए तथा दूसरे पक्षकार के द्वारा उसे स्वीकार कर लिया जाए।
उदाहरण के लिए राम किसी वस्तु के विक्रय करने का प्रस्ताव एक निश्चित मूल्य पर श्याम के समक्ष रखता है। और श्याम उसे स्वीकार कर लेता है। तो कहा जायेगा कि राम और श्याम के मध्य वस्तु के विक्रय एवं क्रय के सम्बन्ध में सहमति हो गई है। हम कह सकते है कि ठहराव प्रस्ताव एवं स्वीकृति से उत्पन्न होता है।
प्रस्ताव
प्रस्ताव से आशय है कि कोई पक्षकार अपनी इच्छा दूसरे पक्षकार के समक्ष प्रस्तुत करें तथा उसकी सहमति प्राप्त करे। भारतीय अनुबंध अधिनियम कि धारा 2(ए) के अनुसार प्रस्ताव को इस प्रकार से परिभाषित किया गया है कि जब एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यकित के सम्मुख किसी कार्य को करने अथवा न करने के सम्बन्ध में अपनी इच्छा इस उद्देश्य से प्रकट करता है कि उस दूसरे व्यक्ति की सहमति से उस कार्य को करने अथवा न करने के सम्बन्ध में प्राप्त हो कहा जाता है कि एक व्यक्ति ने दूसरे व्यक्ति के सम्मुख प्रस्ताव किया है। इसका अर्थ यह है कि प्रस्ताव रखने वाला पक्षकार अपने प्रस्ताव के बदले में दूसरे पक्षकार से उसकी सहमति की अपेक्षा रखता है।
स्वीकृति
स्वीेकृति से आशय है कि जिस व्यक्ति के सम्मुख प्रस्ताव रखे गये है वह व्यक्ति उस प्रस्ताव को स्वीकार कर ले। दूसरे शब्दों में उस प्रस्ताव कि सभी शर्तो से वह व्यक्ति सहमत हो जाए। भारतीय अनुबंध अधिनियम कि धारा 2 (बी) में वर्णित है कि जब वह व्यक्ति जिसके सम्मुख प्रस्ताव रखा गया है प्रस्ताव पर अपनी सहमति प्रकट कर देता है, तो यह कहा जाता है, कि प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया है। उदाहरण के लिए राम अपने उत्पाद को 500 रूपयें में बेचने का प्रस्ताव श्याम के सम्मुख रखता है और श्याम वह उत्पाद बताये गये मूल्य पर क्रय करने के लिए सहमत हो जाता है।
अब राम को अपना उत्पाद श्याम को बेचना ही पड़ेगा और श्याम को उसका मूल्य चुकता करना पड़ेगा। यदि दोनों में से कोई एक पक्ष अपने वचन को पूरा नहीं करेगा तो दूसरा पक्ष वैधानिक रूप से दूसरे पक्ष के उपर उसके वचन को पूरा कराने वाली वैधानिक कार्यवाही कर सकता है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो ठहराव दोनों पक्षों पर वैधानिक रुप से एक समान लागू होता है। यदि ऐसा नहीं है तो ठहराव अनुबंध का रूप नही ले सकता है। इस आधार पर हम कह सकते है कि ठहराव राज नियम द्वारा परिर्वतनीय होते है इस बात को धारा 2(एच) में परिभाषित किया गया हैं।
पक्षकारों में अनुबंध करने की क्षमता होना –
पक्षकारों में अनुबंध करने की क्षमता होने का अर्थ है कि पक्षकार वैधानिक रूप से अनुबंध करने के योग्य हों। आशय यह है कि वही व्यक्ति अनुबंध कर सकते है, जिनकों कानून अनुबंध करने से प्रतिबन्धित नहीं करता है। भारतीय अनुबंध अधिनियम की धारा 11 के अनुसार ‘‘प्रत्येक व्यक्ति अनुबंध करने के योग्य है, जो कि राजनियम के अनुसार जिसके अधीन वह आता है, वयस्क है, स्वस्थ्य मस्तिष्क का है, और किसी राजनियम के अनुसार (जिसके अधीन वह आता है, अर्थात इस अधिनियम या किसी अन्य अधिनियमों) के द्वारा अयोग्य घोषित नहीं किया गया है। उपरोक्त के आधार पर यह कहा जा सकता है कि निम्न व्यक्ति अनुबंध करने के लिए लिये योग्य है।
जिन्होनंे वयस्कता की आयु प्राप्त कर ली है। भारतीय विधान के अनुसार वह व्यक्ति जिसने 18 वर्ष की आयु प्राप्त कर ली है। वयस्क होता है। ऐसा व्यक्ति अनुबंध कर सकता है।
जो स्वस्थ्य मस्तिष्क के हों। स्वस्थ मस्तिष्क से आशय है कि अनुबंध करने वाला व्यक्ति अनुबंध की शर्ते को समझ सके और अनुबंध के परिणामस्वरूप अपने ऊपर पड़ने वाले दायित्व एवं अधिकारों के प्रभाव को समझ सकें।
जिन्हें किसी भी कानून के द्वारा अनुबंध करने से प्रतिबन्धित न किया गया हो। उदाहरण के लिए एक दिवालिया व्यक्ति अनुबंध नहीं कर सकता है।
अतः एक अवस्यक, अस्वस्थ मस्तिष्क का व्यक्ति तथा कानून द्वारा प्रतिबन्धित व्यक्ति अनुबंध नहीं कर सकता है। इनके द्वारा किया गया अनुबंध कानून के द्वारा प्रवर्तनीय नहीं होता है। एक उदाहरण देखिए, एक अवस्यक अ अपने लिए ब से 1000 रू0 उधार लेता है, और एक माह में यह लौटाने का वचन देता है। यह एक वैध अनुबंध नही हैं। ऐसी स्थित में यदि ‘अ’ अपने वचन से मुकर जाता है तो ‘ब’ के पास कोई उपाय नही है कि वह अपनी धनराशि प्राप्त कर ले।
पक्षकारों की स्वतंत्र सहमति होना-
अनुबंध की वैधता के लिए पक्षकारों की अनुबंध में स्वतंत्र सहमति होना चाहिए। इसके दो पक्ष हैं, एक, कि अनुबंध हो और दूसरा, कि अनुबंध के पक्षकारों ने अनुबंध में प्रवेश अपनी स्वतंत्र सहमति (इच्छा) से किया हो। स्वतंत्र सहमति तब कही जाती है जब अनुबंध के पक्षकार एक बात पर एक मत से सहमत हो गए है। इसका अर्थ है कि अनुबंध के सार को लेकर पक्षकारों का भाव एक है। इसके अतिरिक्त सहमति के सम्बन्ध में यह भी आवश्यक है कि पक्षकारों के उपर अनुबंध में प्रवेश करने को लेकर एक दूसरे पर किसी प्रकार का दबाव न हो। एक बात और विचारणीय है कि किसी तीसरे पक्ष का भी अनुबंध के पक्षकारों पर कोई दबाव नही होना चाहिए।
भारतीय अनुबंध अधिनियम के अनुसार यदि पक्षकारों की सहमति (क) उत्पीड़न (ख) अनुचित प्रभाव (ग) कपट (घ) मिथ्यावर्णन अथवा (ङ) गलती से प्रभावित हो तो उसे स्वतंत्र सहमति नहीं माना जाता है। इनमें से किसी एक का भी प्रभाव हो तो सहमति स्वतंत्र नहीं मानी जाती है। एक उदाहरण देखिए-अ, ब को धमकी देता है कि यदि ब अपनी मेाटर कार अ को बेचने के लिए सहमत नहीं होता है तो अ, ब के पुत्र का अपहरण करवा देगा। ऐसी स्थिति में यदि ब डरकर सहमति दे देता है तो यह सहमति स्वतन्त्र नहीं होगी। ब की इच्छा पर ऐसा अनुबंध व्यर्थ एवं अवैध हो जाएगा।
न्यायोचित प्रतिफल का होना –
प्रत्येक अनुबंध का प्रतिफल होना चाहिए और प्रतिफल न्यायोचित होना चाहिए। प्रतिफल का आशय है ‘‘बदले में कुछ प्राप्त होना।
किसी वस्तु की बिक्री के सम्बन्ध में विक्रेता के लिए मूल्य एवं क्रेता के लिए प्राप्त होने वाली वस्तु प्रतिफल होता है। बिना किसी मूल्य के किया जाने वाला विक्रय का अनुबंध व्यर्थ होगा। अनुबंध में प्रतिफल तो होना चाहिए और प्रतिफल को वैध भी होना चाहिए। यदि प्रतिफल जो राजनियम द्वारा वर्जित हैं (जैसे कि मुद्रा का न होना) अथवा किसी अन्य राजनियमों का उल्लंघन करते हों तो प्रतिफल न्यायोचित नहीं माना जाएगा। यदि प्रतिफल कपट द्वारा प्राप्त किया जा रहा है, तो भी न्यायोचित नहीं कहलाएगा उदाहरण के लिए यदि रमेश 100000 रू के बदले सुरेश को सरकारी नौकरी दिलाने का वादा करता है, और सुरेश इसके लिए तैयार भी हो जाता है, ऐसी स्थिति में उनका अनुबंध और प्रतिफल दोनो ही अवैध होगा।
वैध उद्देश्य का होना-
वैद्य उद्देश्य से आशय है कि अनुबंध का उद्देश्य एवं प्रयोजन वैधानिक हों। यदि दो पक्षों के मध्य हुए अनुबंध का उद्देश्य ऐसा व्यापार करना हो जो प्रतिबन्धित है अथवा पहले से ही अवैध घोषित है तो वैध उद्देश्य नहीं कहलाएगा। किसी अनुबंध के परिणामस्वरूप किसी राजनियम के प्रावधानों का उल्लघंन होता हो अथवा किसी समपत्ति अथवा समाजिक व्यवस्था को क्षति पहुचाती है तो वैध उद्ेश्य नहीं कहलायेगा। यदि कोई अनैतिक व्यापार या क्रियाएं की जा रही है तो भी वैध उद्देश्य नही होगा। लोक नीति के विरूद्ध भी कोई व्यापार हो रहा है, तो उसका उद्देश्य भी अवैध होगा। अवैध उद्देश्य वाले अनुबंध व्यर्थ होने के साथ-साथ अवैधानिक भी होते है। अतः अनुबंध का उद्ेदश्य वैध होना चाहिए। उदाहरण के लिए श्याम अपने दुकान की आड़ में सट्टेवाजी का धन्धा चलाता है। तो यह एक अवैध उद्देश्य वाला व्यापार होगा जो कानून के द्वारा दण्डनीय होगा।
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